प्रवेज़ आलम:-रूड़की!
अपनी हयात-ए-ज़िन्दगी में खुद को फ़क़ीरी चोले में ढालने वाले नामवर व दरगाह के 16 वे सज्जादानशीन शाह मंसूर एजाज़ कुद्दुसी साबरी का जन्म आज़ादी से पूर्व 1943 में पिरान कलियर में हुआ था। शाह मंसूर साबरी के वालिद – ए – मोहतरम शाह एजाज़ अहमद साबरी के देहांत के बाद 1984 में शाह मंसूर साहब को दरगाह साबिर पाक का 16 वा सज्जादानशीन बनाया गया था। तब से करीब 37 साल मंसूर मियां ने सज्जादगी के फराइज़ो को अंजाम दिया। सज्जादानशीन शाह मंसूर साहब मृदुभाषी, मिलनसार, सहज सरल स्वभाव और नेक दिल इंसान थे। उनका फ़क़ीरी में अटूट विश्वास था। शाहों के तख्त पर बैठकर खुद को फ़क़ीरी में तब्दील कर लेने वालो के लिए शाह मंसूर मियां एक मिसाल थी। तत्कालीन सज्जादानशीन शाह मंसूर मिया हिंदी, उर्दू, अरबी की तालीमात हासिल रखते थे और हिंदुस्तान के तमाम शहरों के साथ साथ दीगर मुल्कों में भी सूफीईज्म का प्रचार प्रसार किया करते थे। शाह मंसूर मिया का नाम बड़े नामवरो में शुमार था, उनकी हयात-ए-ज़िन्दगी से वाकिफ लोग उनकी सादगी के मुरीद थे। बड़ी बात ये है कि इस परिवार से मुखालफत रखने वाले लोग भी शाह मंसूर मियां का बेहद अदब और एहतेराम किया करते थे, ये मंसूर मियां की फ़क़ीरी ही थी कि जो साहिबे निशात और गरीब मजलूम में फर्क नही समझा करते थे, लेकिन अफ़सोस शाह मंसूर मियां करीब 3 माह पूर्व इस दुनियां को अलविदा कह गए। शाह मंसूर मियां के बाद ये जिम्मेदारी उनके चौथे भाई शिम्मी मियां के बड़े बेटे शाह अली एज़ाज़ साबरी को मिली। जो शाह मंसूर मियां के समय से ही खुद को नायब सज्जादानशीन के पद पर नियुक्त मानते थे।
ग़ौरतलब है कि सैकड़ो साल पहले हज़रत मखदूम अलाउद्दीन अली अहमद साबिर पाक ने बुराई को खत्म करने के साथ छोटे-बड़े का भेदभाव, आपसी प्यार और इंसाफ की राह दिखाई और इंसानियत की तालीम को आम किया। लेकिन जैसे-जैसे वक़्त बदला तो उन्ही के कहलाने वाले लोग अपने रुतबे को सर्वोपरि मानते हुए अपने आपको हुक्मरान समझ बैठे। लेकिन वक़्त पलटते शायद समय नही लगता। आज उन्ही कथित हुक्मरानों के सामने अदनान का मुलाजिम भी सीना तानकर खडा हो जाता है। जो नाम बड़ो ने कायम और दायम रखा वो सिमटा दिखाई देने लगा, फ़क़ीरी को छोड़कर शाहों वाला मिज़ाज़ ये बताने के लिए काफी है कि अब नाम खोते नामवर हैं……?