“भेल की ज़मीन पर पांच साल अवैध यूनिपोल लगाकर किसने कमाए करोड़ों, किसने दी लूट की छूट..?
अवैध यूनिपोल हटने के उठे सवाल, "विज्ञापन माफिया, सफेदपोश और अधिकारियों" की तिकड़ी ने मिलकर किया पांच करोड़ से ज़्यादा का गोरखधंधा..

पंच👊नामा-ब्यूरो
हरिद्वार: भेल की जमीनों से अवैध यूनिपोल्स को हटाए जाने के बाद करोड़ों के कथित भ्रष्टाचार की परतें धीरे-धीरे खुलने लगी हैं। नगर प्रशासन की हालिया कार्रवाई से भले ही भेल की मुख्य सड़कों और चौराहों को यूनिपोल से मुक्त कर दिया गया हो, लेकिन अब सबसे बड़ा सवाल यही उठ रहा है कि आखिर यह घोटाला इतने लंबे समय तक कैसे चलता रहा और किसकी शह पर…? पांच साल तक लूट की छूट क्यों दी जाती रही। सूत्र बताते हैं कि “विज्ञापन माफिया, सफेदपोश और अधिकारियों” की तिकड़ी ने मिलकर पांच साल में करीब 5.20 करोड़ रुपये की वसूली इन अवैध यूनिपोल्स से की है।
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करोड़ों की कमाई, लेकिन भेल को नहीं एक पैसा……जानकारी के अनुसार वर्ष 2019 से लेकर 2024 तक भेल के मध्य मार्ग समेत कई मुख्य चौराहों पर 16 अवैध यूनिपोल लगे रहे। इन पर विज्ञापन कंपनियों और निजी संगठनों के होर्डिंग्स नियमित रूप से चलते रहे। लेकिन हैरानी की बात यह है कि न तो इन यूनिपोल्स के लिए कोई वैध अनुमति ली गई और न ही भेल प्रशासन को इसका कोई राजस्व मिला। अब जब नगर प्रशासन की सख्ती से ये यूनिपोल हटाए गए, तब जाकर यह खुलासा हुआ कि ये सभी यूनिपोल पूरी तरह अवैध थे।
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सवालों के घेरे में भेल अधिकारी…….सबसे बड़ा सवाल यही है कि पांच वर्षों तक यह खेल खुलेआम कैसे चलता रहा? क्या भेल प्रशासन को इस पूरे मामले की कोई जानकारी नहीं थी, या फिर जानबूझकर आंखें मूंद ली गई थीं? सूत्रों की मानें तो भेल के संपदा विभाग में तैनात रहे कुछ अधिकारियों की मिलीभगत से यह पूरा खेल संभव हुआ। यूनिपोल हटने के बाद अब यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या इन अधिकारियों और विज्ञापन माफिया के बीच कोई अंदरूनी सांठगांठ थी..?
पांच साल में करीब 5.60 करोड़ रुपये की कमाई का अनुमान….
हरिद्वार में चुनावी सीजन को छोड़ दें तो भी एक यूनिपोल साइट का किराया करीब 1,000 रुपये प्रति दिन माना जाता है। चूंकि भेल में लगाए गए सभी यूनिपोल डबल साइडेड थे, ऐसे में हर महीने एक यूनिपोल से औसतन 60 हजार रुपये की कमाई हुई। पूरे साल में यह राशि एक यूनिपोल के लिए 7.20 लाख रुपये बैठती है। 16 यूनिपोल्स से सालाना कमाई 1.12 करोड़ रुपये के करीब हुई और पांच साल में यह आंकड़ा लगभग 5.60 करोड़ रुपये तक जा पहुंचा। यह रकम सीधे तौर पर भेल और सरकारी खजाने को चूना लगाकर कमाई गई।
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क्या होगी रिकवरी….?अब आमजन यह जानना चाहता है कि क्या भेल प्रबंधन और जिला प्रशासन इस मामले में किसी प्रकार की जांच बैठा पाएंगे? क्या इस कथित घोटाले में शामिल रहे अधिकारियों, सफेदपोशों और विज्ञापन माफिया पर कार्रवाई होगी? और क्या पांच साल तक डकारे गए करोड़ों रुपये की रिकवरी संभव है?
भेल जैसी प्रतिष्ठित संस्था में यदि इतने लंबे समय तक यह गोरखधंधा चलता रहा तो इससे कहीं न कहीं पूरे सिस्टम की कार्यशैली पर सवाल खड़े होते हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या इस भ्रष्टाचार के दलदल से कोई नाम बेनकाब होता है या फिर मामला कागजों में ही दफन हो जाएगा।
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जांच की मांग तेज, लेकिन प्रशासन चुप……इस पूरे प्रकरण में भेल प्रबंधन और जिला प्रशासन की चुप्पी भी कम संदिग्ध नहीं है। नगर प्रशासक संजय पंवार ने इस विषय में कुछ भी बोलने से साफ इनकार कर दिया और इसे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर का मामला बताया। वहीं भेल प्रबंधन की ओर से भी अब तक कोई ठोस प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। जबकि यह मामला न सिर्फ सरकारी संपत्ति के अवैध उपयोग का है, बल्कि राजस्व की बड़े पैमाने पर हानि और अधिकारियों की संभावित मिलीभगत का भी है।