पंच👊नामा-ब्यूरो
आज चांद नजर आने पर रमजान माह की शुरुआत हो जाएगी। मजहब-ए-इस्लाम मे रमज़ान माह की बड़ी-बड़ी फजीलते बयान की गई है। रमज़ान एक ऐसा बा-बरकत महीना जिसका इंतेजार साल के ग्यारह महीने हर मुसलमान को रहता है। इस्लाम के मुताबिक़, इस महीने के एक दिन को आम दिनों की हज़ार साल से ज़्यादा बेहतर (ख़ास) माना गया है। मुस्लिम समुदाय के सभी लोगों पर रोज़ा फर्ज़ होता है, जिसे पूरी दुनिया में दूसरे नंबर की आबादी रखने वाला मुसलमान बड़ी संजीदगी से लागु करने की फ़िक्र रखते हैं।माह-ए-रमज़ान में रखा जाने वाला रोज़ा हर तंदुरुस्त (सेहतमंद) मर्द और औरत पर फर्ज़ होता है। रोज़ा छोटे बच्चों, बिमारों और सूझ समझ ना रखने वालों पर लागू नहीं होता। हालांकि, ये रोज़े इतने खास माने जाते हैं कि, इन दिनों में किसी बीमारी से ग्रस्त पीड़ित या पीड़िता के ठीक होने के बाद इन तीस दिनों में से छूटे हुए रोज़ों को रखना ज़रूरी होता है। रमज़ान में सहरी, इफ़्तार के अलावा तराबीह की नमाज की भी बेहद अहमियत है।
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””क्या होती है तराबीह….
वैसे तो, रमज़ान जिसे इबादत के महीने के नाम से जाना जाता है जो इस महीने के चांद के दिखते ही शुरू हो जाता है। रमज़ान का चांद दिखते ही लोग एक दूसरे को इस महीने की मुबारकबाद देते हैं, फिर उसी रात से तराबीह नमाज का सिलसिला शुरु हो जाता है। तराबीह एक नमाज़ है, जिसमें इमाम (नमाज़ पढ़ाने वाला) नमाज़ की हालत में क़ुरआन पढ़कर नमाज़ में शामिल लोगों को सुनाता है। इसका मकसद, लोगों की क़ुरआन के ज़रिए अल्लाह की तरफ से भेजी हुई बातों के बारे में बताना है। तराबीह को रात की आखरी, यानि इशां की नमाज़ के बाद पढ़ा जाता है। क़ुरआन बहुत बड़ी किताब होने की वजह से एक बार में नमाज़ की हालत में सुनना मुश्किल होता है। इसलिए इस किताब को तराबीह में पढ़ने और सुनने के लिए रमज़ान के दिनों में से कुछ दिन तय कर लिए जाते हैं। इसमें हर मस्जिद अपनी सहूलत के मुताबिक, रमज़ान के तीस दिनों में से तराबीह पढ़े जाने के दिन तय कर लेती है और उन्हीं दिनों में क़ुरआन को पूरा पढ़ते और सुनते हैं। आमतौर पर तराबीह की नमाज़ में देढ़ से दो घंटों का वक़्त लग जाता है।
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””सहरी से शुरू होता है रोज़ा….
रोज़े की शुरुआत सहरी से होती है, सहरी उस खाने को कहा जाता है, जो सहर यानि सुबह की शुरुआत होने से पहले खाया जाए। इस्लाम के मुताबिक, इस खाने को काफी फायदेमंद बताया गया है। बताया जाता है कि लोगों को रात के आखिर हिस्से में अगर एक खजूर या थोड़ा सा पानी ही खाने-पीने का मौका मिले, तो उन्हें खा लेना चाहिए। लेकिन, ऐसा नही है कि बिना सहरी के रोजा नही रखा जा सकता। अगर किसी वजह से सेहरी छूट जाती है, तो भी रोज़े को नहीं छोड़ा जा सकता।
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”’रोजे का मक़सद…..
रोज़े के मायने सिर्फ यही नहीं है कि, इसमें सुबह से शाम तक भूखे-प्यासे रहो बल्कि रोज़ा वो अमल है, जो रोज़दार को पूरी तरह से पाकीज़गी का रास्ता दिखाता है। रोजा इंसान को बुराइयों के रास्ते से हटाकर अच्छाई का रास्ता दिखाता है। महीने भर के रोजों को जरिए अल्लाह चाहता है कि, इंसान अपनी रोज़ाना की जिंदगी को रमज़ान के दिनों के मुताबिक़ गुज़ारने वाला बन जाए, रोज़ा सिर्फ ना खाने या ना पीने का ही नहीं होता, बल्कि रोज़ा शरीर के हर अंग का होता है। इसमें इंसान के दिमाग़ का भी रोज़ा होता है, ताकि, इंसान के खयाल रहे कि, उसका रोज़ा है, तो उसे कुछ गलत बाते गुमान नहीं करनी। उसकी आंखों का भी रोज़ा है, ताकि, उसे ये याद रहे कि, इसी तरह आख, कान, मुँह का भी रोज़ा होता है ताकि, वो किसी से भी कोई बुरे अल्फ़ाज ना कहे और अगर कोई उससे किसी तरह के बुरे अल्फ़ाज कहे तो वो उसे भी इसलिए माफ कर दे कि, उसका रोज़ा है। इस तरह इंसान के पूरे शरीर का रोज़ा होता है, जिसका मक़सद ये भी है कि, इंसान बुराई से जुड़ा कोई भी काम ना करें।
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”’गमखारी का महीना है रमज़ान…….
कुल मिलाकर रमज़ान का मक़सद इंसान को बुराइयों के रास्ते से हटाकर अच्छाई के रास्ते पर लाना है। इसका मक़सद एक दूसरे से मोहब्बत, प्रेम, भाइचारा और खुशियां बाटना है। रमज़ान का का मक़सद सिर्फ यही नहीं होता कि, एक मुसलमान सिर्फ किसी मुसलमान से ही अपने अच्छे अख़लाक़ रखे बल्कि, मुसलमान पर ये भी फर्ज है कि, वो किसी और भी मज़हब के मानने वालों से भी मोहब्बत, प्रेम, इज़्ज़त, सम्मान, अच्छा अख़लाक़ रखे, ताकि दुनिया के हर इंसान का एक दूसरे से भाईचारा बना रहे। गरीब मजलूम का ख्याल रखें।