मुनव्वर अली साबरी!
पंच👊नामा-पिरान कलियर: किसी हलाल जानवर को अल्लाह का तक़र्रुब हासिल करने की नियत से ज़िबह करना उस वक्त से शुरू हुआ जब से हजरत आदम अलै.सलाम दुनिया में तशरीफ लाए और दुनिया आबाद हुई, सबसे पहले कुर्बानी हज़रत आदम के बेटों हाबील व काबिल ने दी उर्दू में जिसे क़ुर्बानी कहा जाता है, असल मे यह शब्द क़ुर्बान बा वज्न क़ुरआन है।क़ुर्बान हर उस चीज़ को कहा जाता है जिसको अल्लाह के क़रीब होने का माध्यम बनाया जाए चाहे वह जानवर का ज़िबह करना हो या आम सदक़ा खैरात क़ुरआन-ए-करीम ने ज़्यादा तर जानवर के ज़िब्ह करने के मतलब में ही क़ुर्बानी शब्द का प्रयोग किया गया है। दुनिया भर के मुसलमान अल्लाह के हुक्म को मानते हुए पैग़म्बर हज़रत इब्राहीम की सुन्नत पर अमल करते हुए ईद-उल-अज़हा के दिन साल भर में क़ुर्बानी करते हैं शरीअत-ए-मोहम्मदिया में क़ुर्बानी को वाजिब क़रार दिया गया है। क़ुर्बानी पर ग़ौर किया जाए तो इसका दस्तूर हज़रत आदम अलै. के दुनिया मे तशरीफ़ लाने और दुनिया के आबाद होने के साथ से ही चला आरहा है।सब से पहली क़ुर्बानी हज़रत आदम के दो बेटों हाबील व क़ाबील ने दी। हाबील ने एक मेंढे की क़ुर्बानी पेश की ओर क़ाबील ने अपने खेत की फसल से कुछ अनाज सदक़ा कर पेश की। दस्तूर के मुताबिक आसमान से आग नाज़िल हुई और आग ने हाबील के मेंढे को खा लिया क़ाबील के गल्ले को छोड़ दिया। उस ज़माने में क़ुर्बानी के क़बूल होने की यही पहचान थी के जिस क़ुर्बानी को आसमान से आग आकर निगल जाती वह क़बूल समझी जाती। आखरी नबी हज़रत मोहममद स.अ. व. के समय मे क़ुर्बानी के गोश्त व माल-ए-गनीमत को हलाल कर दिया गया। क़ुर्बानी की हैसियत व इबादत वैसे तो हज़रत आदम अलै. सलाम के ज़माने से जाएज़ है लेकिन ख़ास तौर पर यह हज़रत इब्राहिम अलै. के एक किस्से से संचालित होती है और एक यादगार की हैसियत से शरीअत-ए-मोहम्मदिया में क़ुर्बानी को वाजिब क़रार दिया गया। एक रिवायत के मुताबिक हज़रत इब्राहीम अलै. की काफी तम्मननाओं व दुआओं के बाद 86 वर्ष में एक बेटे ने जन्म लिया जिनका नाम इस्माइल अलै. रखा गया। जब हज़रत इस्माइल की आयु 13 वर्ष की हुई या यह समझा जाये कि यह बच्चा इस लायक़ हो गया कि बाप के साथ चलकर उनके कामो में मददगार बन सके तो हज़रत इब्राहीम अलै. ने अपने बेटे से कहा कि मेरे प्यारे बेटे मेंने ख्वाब (सपने) में देखा है कि में तुझको ज़िब्ह कर रहा हूं,बताओ इस मे तुम्हारी किया राय हे कियूंकि नबी का सपना (ख्वाब) ख़ुदा का हुक्म (आदेश) होता है,इस लिए बताओ कि खुदा के इस हुक्म (आदेश) की तामील के लिए किया तुम तैयार हो।उस पर बेटे इस्माइल ने जवाब दिया कि अब्बा जान आप वह काम करें जिसके लिए ख़ुदा हुक्म (आदेश) देता है।मुझे इंशाल्लाह आप साबरीन मे से पाएंगे,तब हज़रत इब्राहीम बेटे इस्माइल को साथ लेकर बेटे की क़ुर्बानी करने के लिए चल दिये। इस अवसर पर शैतान हज़रत समाइल अलै. की वालिद (माँ) के पास इंसान के वेश में पहुंचा और कहा कि हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माइल को ज़िब्ह करने के लिए ले जा रहे हैं। उनकी माँ ने जवाब दिया कि कोई बाप अपने बेटे को ज़िब्ह नही करता। शैतान ने कहा कि हज़रत इब्राहीम कहते हैं कि उन्हें ऐसा करने के लिए खुदा ने हुक्म ( आदेश) दिया है जिस पर हज़रत इस्माइल की माँ ने जवाब दिया कि अगर खुदा ने हुक्म दिया है तो आवश्यक पूरा करना चाहिए। शैतान ने मुंह की खा कर हज़रत इब्राहीम ओर हजरत इस्माइल को बहकना चाहा ओर अपना मक़सद पूरा करने के लिए तीन बार उनका रास्ता रोका। तब हज़रत इब्राहीम ने तीनों बार शैतान को सात सात कंकरियां मारी इसके बाद शैतान बाधा नही डाल सका और वह क़ुर्बानगाह पहुंचे।तब बेटे इस्माइल ने कहा कि अब्बा जान पहले मुझे अच्छी तरह बांध दीजिये फिर छूरी तेज़ी के साथ मेरी गर्दन पर चलाइये। अपने कपड़ों को मेरे खून के छींटों से बचाइये, मेरी माँ खून के छींटे देखेगी तो उन्हें ज़्यादा सदमा होगा। हज़रत इब्राहीम ने अपने बेटे इस्माइल के इस जवाब पर खुशी का इज़हार किया और उन्हें प्यार कर के नम आंखों से बांधना शुरू किया और करवट से लिटा कर ज़िब्ह करना शुरू किया लेकिन छुरी से इस्माइल की गर्दन को कोई इज़ा नही आई इतने में अल्लाह का हुक्म (आदेश) सुनाई दिया कि इब्राहिम तुम ने अपना ख्वाब (सपना) सच कर दिखाया और साथ ही एक दुम्बा हज़रत इस्माइल की जगह क़ुर्बानी के लिए नाज़िल कर दिया गया।यह अमल खुदा को इतना पसंद आया कि अल्लाह ने हलाल जानवर की क़ुर्बानी को क़यामत तक के लिए जारी रखने का कानून बना दिया। अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम खलीलुल्लाह के आमाल व अफ़आल को पसंद फरमा कर क़यामत तक उनकी यादगार को ज़िंदा रखने के लिए उनकी नक़ल करने को इबादत क़रार दे कर अपने बंदों पर वाजिब कर दिया कि जिस तरह हज में तीनों जुमरातों व स्थान जहाँ शैतान ने बहकाना चाहा था पर कंकरियां मारना व हलाल जानवर की क़ुर्बानी करना हज़रत इब्राहीम की सुन्नत (यादगार) है जिस तरह मुसलमान और सदक़ा व फित्र वाजिब है उसी तरह ईदुल अज़हा के मौके पर क़ुर्बानी भी वाजिब है। जिस जानवर की क़ुर्बानी की जाती है उसके जिस्म पर जितने बाल होते हैं उनके बराबर क़ुर्बानी करने वाले के नामाये आमाल में लिख दी जाती है।