हरिद्वार

महर्षि दयानन्द सरस्वती की 200वीं जयन्ती पर देशभर में होंगे कार्यक्रम आयोजित..

अमृत काल में देश ने महर्षि दयानंद सरस्वती की प्राथमिकताओं को अपनाया: प्रधानमंत्री मोदी

पंच👊नामा-ब्यूरो
हरिद्वार: आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती की 200 वीं जयन्ती के समारोह अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आगामी 12 फरवरी को दिल्ली से आर्यजनों के कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि घोषणा की।

फाइल फोटो

प्रधानमंत्री ने महर्षि दयानंद सरस्वती के 200वें जन्मदिन के सम्मान में एक साल तक चलने वाले समारोह की शुरुआत में दिल्ली में यह बयान दिया। उन्होंने कहा कि अमृत काल में देश ने महर्षि दयानंद सरस्वती जैसी ही प्राथमिकताओं को अपनाया। यह सम्पूर्ण राष्ट्र महर्षि दयानन्द की 200 वीं जन्म-जयन्ती पर पूरे वर्ष विभिन्न कार्यक्रम, समारोह आयोजित कर उनके प्रति आभार सहित अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करेगा। इसी कड़ी में हरिद्वार सहित पूरे देश में विविध कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है।

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गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर रूप किशोर शास्त्री ने बताया कि मुख्य कार्यक्रम आगामी 12 फरवरी सोमवार को टंकारा गुजरात में हो रहा है, जिसमें विश्व के आर्य समाजी और विभिन्न गणमान्य अतिथि भाग ले रहे हैं। उन्होंने कहा कि हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय सहित अन्य आर्य सामाजिक संस्थाओं में भी कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है। प्रोफेसर रूप किशोर शास्त्री ने बताया कि महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को टङ्कारा (गुजरात) में हुआ था, इसलिए मूल कार्यक्रम वहीं पर आयोजित हो रहा है।

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उनके बचपन का नाम मूलशङ्कर था। संन्यास के बाद वह स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम से प्रख्यात हुए। अपनी अध्यात्म जिज्ञासा के चलते उन्होंने वैराग्य को आत्महत्या किया। जिसका मूल उद्देश्य सांसारिक बन्धनों से मुक्ति हेतु सच्चे सच्चिदानन्द शिव की खोज करना था। किन्तु सन्यासोपरांत प्रज्ञाचक्षु गुरुवर विरजानन्द से अष्टाध्यायी, व्याकरण-महाभाष्य, निरुक्त तथा वेदादि समस्त आर्ष-ग्रन्थों एवं अन्यान्य मत-मज़हब-सम्प्रदायों के ग्रन्थों के सम्यक् अध्ययन से वैचारिक दृढ़ता से समृद्ध हुए ब्रह्मचारी दयानन्द सरस्वती ने जब भारतीय जनमानस को दीन-हीन, भीरु, कुण्ठित, पाखण्ड़-आड़म्बर-भूत-पिशाच-जादू-टोना-कुरीतियों-शोषण, अविद्या-अज्ञान, गरीबी एवं विदेशी व मानसिक गुलामी आदि से

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आकण्ठ ग्रसित देखा तो अपने व्यक्तिगत मुक्ति-मार्ग को गौण एवं लम्बित करके वेदज्ञान व वैदिक सिद्धान्तों के तर्कसम्मित आधार पर छुआ-छूत-अर्थहीन धार्मिकजड़ता-गुरुडम-ढ़ोंग- पाखणड-आडम्बर-अज्ञान- अविद्या आदि के उच्छेदन करने में अपना समस्त जीवन सर्वात्मना समर्पित कर दिया। यह उनकी और पश्चात् में उनके द्वारा संस्थापित आर्यसमाज की अद्भुत प्रचार-योजना, विचार-दृष्टि और उत्कृष्ट-कार्यशैली थी। उनके इसी प्रखर प्रकल्प व प्रायोजना, स्वराज्य, स्वदेशी-भाव, स्वसंस्कृति, स्वज्ञान, स्वसम्पदा, स्वपरम्परा एवं स्वअस्तित्व ने विशद रूप लिया, यही भारत और बाद में भारतीय जनमानस के भविष्य और भाग्य का सशक्त सुदृढ़ प्रासाद बना।

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महर्षि दयानंद की दो सौवीं जन्म जयंति पर आयोजित होने वाले समारोह की जानकारी देते हुए गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर रूप किशोर शास्त्री ने बताया कि महाभारत युग के पांच हजार वर्ष बाद महर्षि दयानन्द ने वेदों एवं वैदिक ज्ञान-विज्ञान की वास्तविक श्रेष्ठता पहचानी और इसको ईश्वरीय ज्ञान प्रतिष्ठित करते हुए विश्व के विशालतम, शुद्धतम और महानतम-ज्ञान तथा विद्यासम्मित साहित्य को आदर्श माना। इसी के बल पर समस्त समस्याओं एवं निराकरण का मार्ग स्वामी जी ने उत्कृष्ट रुप से प्रस्तुत किया। स्वामी जी ने अपने तप-ज्ञान-चिन्तन-साधना के बल पर वेदोद्धार ही नहीं किया अपितु इसी वेदज्ञान और सिद्धान्तों के आधार पर अज्ञान-अन्धकार, अशिक्षा-परतन्त्रता आदि बन्धनों को काटकर भारतीय समाज एवं जनमानस को प्रत्येक क्षेत्र में ऊर्जस्वित् किया, यह इस विश्व को स्वामी जी की अद्भुत देन है।
महर्षि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में तथा बाद में उनके द्वारा संस्थापित आर्यसमाज ने दयानन्द-आन्दोलन को राष्ट्रीय भावना के साथ प्रखरतानिष्ठ प्रत्याक्रमणवादी बनाये रखा।

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इसी भाव ने भारत और भारतीय समाज को निरन्तर विकासवादी एवं स्वाभिमानवादी बनाये रखने की दिशा दी, चूँकि महर्षि दयानन्द की प्रमुख चिन्ता एवं चिन्तन-परायणता भारतीय समाज के पुनर्जागरण एवं पुनरुद्धार की थी। वह इसमें सफल भी रहे। महर्षि दयानंद सरस्वती एक कट्टर वैदिकधर्मी थे, परंतु उनका मुसलमान, ईसाई तथा अन्य मतावलम्बियों के साथ सौहार्द, प्रेम, स्नेह, प्रीति का भाव था। 1875 में जब आर्य समाज की स्थापना काकड़वाडी (मुम्बई) में की थी तब उसके भवन निर्माण हेतु सबसे पहला दान एक मुस्लिम मतावलम्बी भक्त ने ही दिया था, जिसका उल्लेख भवन पर स्थापित सिलापट्ट पर आज भी है।

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उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में इस्लाम, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि अनेकानेक मतावलम्बियों के सिद्धान्तों, मतों की जमकर आलोचना और समीक्षा की। वे एक क्रान्तिकारी समाजसुधारक थे, जिन्होंने वैज्ञानिक-सिद्धान्तों व सत्य के साथ कभी भी समझौता नहीं किया। वह जातिवाद को समाज का कोढ़ मानते थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त छुआछूत, ऊंच-नीच जैसी विकृत स्थिति, व्यवहार एवं सोच के विरुद्ध सङ्घर्ष किया। उन्होंने समता-सौहार्द मूलक समाज का सिद्धान्त पुनस्स्थापित किया। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” इस धर्मशास्त्रीय-एजेण्डा को साकार स्वरूप प्रदान करने का काम महर्षि दयानंद सरस्वती ने किया। जिसमें नारी-शिक्षा के अतिरिक्त बेमेल-विवाह, बहु-विवाह, बाल-विवाह, सती-प्रथा ऊन्मूलन करने तथा विधवा-विवाह, पुनर्विवाह को वेदों, निरुक्त और धर्मशास्त्रों के आधार पर पैतृक-सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री के समान अधिकारों का प्रतिपादन एवं प्रतिष्ठा की अनिवार्यता सम्बन्धी अद्भुत और ऐतिहासिक कार्य सम्मिलित हैं। भारत में नारी सशक्तिकरण, नई स्वालंबन और नारी उत्थान आन्दोलन के पड़ेेता महर्षि दयानंद सरस्वती हैं।

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