पुलिस ने निभाया फ़र्ज़, लेकिन मुस्लिम संस्थाओं के किसने बांधे हाथ, असल ज़िम्मेदारी किसकी..??
डेढ़ लाख की मुस्लिम आबादी, दर्जनों संस्थाएं और लावारिस मुस्लिम का अंतिम संस्कार कर रही पुलिस..

पंच👊नामा-ब्यूरो
हरिद्वार: एक लावारिस मुसलमान के शव को पुलिस ने जनाजे से लेकर दफन-कफन तक का इंतजाम कराते हुए इस्लामिक तरीके से उसका सुपुर्द ए खाक कराया। पुलिस ने इंसानियत का तकाजा पूरा करते हुए अपनी ड्यूटी का फर्ज निभाया। पुलिस बेशक हौंसलाअफजाई की हक़दार है और आम मुस्लिम दिल खोलकर पुलिस से इस नेक काम की सराहना कर रहे हैं। लेकिन क्या मुस्लिमों की जिम्मेदारी सिर्फ इतनी ही है। क्या उन मुस्लिम संस्थाओं का भी कोई फर्ज बनता है, जो बड़े-बड़े मंचों पर खुद को मुसलमानों का रहनुमा होने का दावा करती हैं।
इनमें कई संस्थाएं तो हर साल लाखों रुपए का चंदा इकट्ठा करती है। क्या इसमें कुछ रकम का इस्तेमाल ऐसे लावारिस मुस्लिमीन के दफन-कफन में नहीं होना चाहिए।
डेढ़ लाख से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले ज्वालापुर में ईदगाह कमेटी, अंजुमन गुलामाने मुस्तफा और जमीयत के कई अलग-अलग गुटों से लेकर तमाम कमेटियां और संस्थाएं मौजूद हैं। जिनका मकसद अलग-अलग तरीकों से मुस्लिमों के हक-हुकूक की हिफाजत, उनकी आवाज को बुलंद करना और पीर-पैगंबरों की तालीम का प्रचार प्रसार करना है।
लेकिन देखने में आता है कि हर संस्था का पूरे साल में एक या दो दिन तय है, जब वह अपना फ़र्ज़ याद करती है और जलवा-जलाल दिखाती है क्या बाकी दिनों में मुस्लिमों को इन संस्थाओं व उनकी रहनुमाई की जरूरत नहीं होती है..?? इस सवाल का जवाब जानना इसलिए भी जरूरी है कि गुरुवार को ही पुलिस ने एक लावारिस मुस्लिम का जनाजा अपने कंधों पर उठाया और उसे सुभाषनगर स्थित कब्रिस्तान में सुपुर्दे ख़ाक कराया।
इस काम में पुलिस से पहले शहर की मुस्लिम संस्थाओं को आगे बढ़कर पहल करनी चाहिए थी। जबकि हरिद्वार में ही हिन्दू व अन्य धर्म के लावारिस शवों के अंतिम संस्कार के लिए कई संस्थाएं काम कर रही हैं। हमारा मकसद किसी संस्था या व्यक्ति को कमतर दिखाना नहीं है, बल्कि उनकी जिम्मेदारी याद दिलाना है। इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी के लिए यह बहुत सोचने-समझने और ग़ौर-फिक्र करने वाली बात है।
उम्मीद है कि शहर की कोई ना कोई मुस्लिम संस्था एक दूसरे पर इल्जामतराशी या जिम्मेदारी थोपने के बजाय “इंसानियत और दीन” से जुड़े इस पहलू पर जरूर गौर करेगी और जरूरी कदम भी उठाएगी। ताकि फिर किसी मुस्लिम के जनाजे को लावारिस के रूप में ना दफनाना पड़े। एक कलमे के पाबंद और पैगंबर मोहम्मद (स.अ.) साहब का उम्मती होने के नाते मकामी मुस्लिम खुद अपने हाथों से उसे सुपुर्द ए खाक करें।
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“72 घंटे तक रखी जाती है लाश……
कहीं भी कोई भी शव मिलने पर शिनाख्त के लिए तीन दिन यानि 72 घंटे का वक्त होता है। इस दरमियान शिनाख्त नहीं होने पर पुलिस की जिम्मेदारी है कि वह उसकी धार्मिक परंपरा व रीति रिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार कराए। हरिद्वार में सेवा समिति (रजि) इस काम को बड़े सलीके और तरीके से वर्षों से अंजाम देती आ रही है।
ताजा मामले में भी रानीपुर झाल में गुरु नानक ढाबा के पास मिले 30 से 35 साल के एक मुस्लिम युवक के शव की शिनाख्त कराने का पुलिस ने भरसक प्रयास किया। लेकिन तीन दिन में जब पहचान नहीं हो सकी तो शव का पोस्टमार्टम कराया गया। ज्वालापुर कोतवाली प्रभारी कुंदन सिंह राणा ने मुस्लिम रीति के अनुसार शव को सुपुर्द ए खाक कराने के निर्देश दिए। तब कॉन्स्टेबल रोहित व दिनेश कुमार ने शव को सुभाषनगर स्थित कब्रिस्तान में मुस्लिम रीति रिवाज से सुपुर्द ए खाक कराया।
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“कोरोना काल में निभाया था फर्ज……..
कोरोना का में कई संस्थाओं और आम लोगों ने बढ़ चढ़कर इंसानियत का फर्ज निभाया। पंजाब से रेलवे ट्रैक किनारे पैदल अपने घर बिहार लौट रहे एक मुस्लिम युवक की मालगाड़ी से टकराकर घायल होने के बाद जिला अस्पताल में उसकी मौत हो गई थी। बिहार में युवक का परिवार इतना गरीब था कि उसके पास जवान बेटे का शव ले जाने के भी पैसे नहीं थे। तब ज्वालापुर निवासी स्क्रैप कारोबारी रईस अहमद, समीर खान, इमरान, आक़िल सलमानी आदि युवाओं ने शव को सुपुर्दे ख़ाक कराया था। यह टीम इससे पहले भी कई लावारिस शवों को सुपुर्द एहसास करा चुकी है। लेकिन इनके प्रयास से बाकी संस्थाओं की जिम्मेदारी और जवाबदेही खत्म नहीं हो जाती है।