धर्म-कर्महरिद्वार

ठेका प्रथा ने ख़त्म कर दी सूफी परंपराओं की रूहानियत..

खानकाहों ने बरसों तक कायम रखी सूफीइज़्म की पाकीज़गी..

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पंच👊नामा
प्रवेज़ आलम- पिरान कलियर: भारतीय उपमहाद्वीप में सूफी संतों का खास मकाम रहा है। बड़े बड़े रईस, जमीदार और हुक्मरानों को खानकाहों पर खिदमत करने में फक्र महसूस होती है। यह सूफियों का ही रूतबा और जलवा है कि बड़े-बड़े बादशाह सूफियों के आगे सिर झुकाकर और दामन फैलाकर खड़े हुए देखे जाते हैं। देश के किसी कोने में भी किसी औलिया का उर्स हो तो खानकाहे वहां जायरीनों की खिदमत को पहुंच जाती हैं। खानकाहो को अगर उर्स की शान कहा जाये तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। इन्हीं खानकाहों ने उस सूफीइज्म को जिन्दा रखा है जिसने इंसान को इंसान से मुहब्बत करने का पैगाम दिया है। कलियर शरीफ में हर साल हजरत मखदूम अलाउद्दीन अली अहमद साबिर पाक के सालाना उर्स में बदस्तूर खानकाहें सजी है लेकिन बदले हुए निजाम ने खानकाहों को दरकिनार कर दिया है, सूफियाना परम्पराओं पर धीरे-धीरे ठेका प्रथा हावी होती चली गई। बावजूद इसके हजरत मख्दमू अली अहमद साबिर पाक के चाहने वालों ने प्रशासनिक उपेक्षा के बावजूद खानकाहों को आबाद रखा है और सदियों से चली आ रही रिवायतों के मुताबिक खानकाहों को गुलजार रखने वाले सूफीया, इकराम बदस्तूर रिवायतो को निभाते आ रहे हैं। आजादी के बाद 1972 में दरगाह और उर्स का प्रबन्ध वक्फ बोर्ड को सौंप दिया गया था। बोर्ड ने दरगाह दफ्तर कायम कर प्रषासक/प्रबन्धक नियुक्ति की परम्परा शुरू की लेकिन व्यवस्थाएं साल दर साल पटरी से उतरती गयी। बादशाही दौर से लेकर ब्रिटिशकाल तक जिन सूफिया-इकराम के सामने अंग्रेज हुक्मरान भी सिर झुकाते हुए “हिज हाईनेस,, कहकर सम्बोधित करते थे आज उन्हें दरकिनार कर ठेका प्रथा प्रचलित कर दी गई, तमाम व्यवस्थाएं ठेका प्रथा की भेट चढ़ी तो आस्था के नाम पर खूब धन बटोरने का सिलसिला शुरू हुआ, जिसका नतीज़ा ये हुआ कि दरगाह की गरिमा और मर्यादा को बाजारीकरण ने ताक पर रख दिया, हालांकि सूफ़ीमत को कायम करती ख़ानक़ाहों ने दरगाह की पाकीजगी और उर्स की शान कायम रही। इस बार 754 वे सालाना उर्स में ठेका प्रथा इसकदर हावी हुई कि आजादी के पहले से आने वाले अकीदतमंदों को भी दरकिनार कर दिया गया। मुरादाबाद से आने वाले अकील और शहीद बताते है कि करीब 80 सालों से उनके दादा के समय से पिरान कलियर उर्स में गोल्डन आशियाना के नाम से कैम्प लगाकर लंगर तकसीम किया जाता रहा है, कैम्प में कुल शरीफ़ और हल्का किया जाता है। लेकिन इस बार उन्हें कैम्प लगाने के लिए जगह नही दी गई, बल्कि उस स्थान पर दुकानें लगा दी गई। ऐसे ही कई लोग है जो अपनी कई पीढ़ियों से उर्स में सेवाभाव से कार्य करते थे लेकिन बदलाओ की इस बयार में उन्हें दरकिनार कर दिया गया।

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