धर्म-कर्म

“आलम-ए-इस्लाम की तारीख़ बन गई कर्बला की जंग — जहां पानी रोका गया, मगर सब्र बहता रहा..!

"कत्ल-ए-हुसैन अस्ल में मर्ग-ए-यज़ीद है — इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद..

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प्रवेज़ आलम
रुड़की/कलियर: कर्बला के मैदान में नवासा ए रसूल मौला इमाम हुसैन और उनके कुनबे को यजीद के लश्कर ने 10 मोहर्रम को शहीद कर दिया था। शहादत पाने वालों में इमाम हुसैन का छह माह का बेटा अली असगर, 18 साल का जवान अली अकबर, भाई अब्बास अलमदार, दो भांजे औनो मोहम्मद, भतीजा कासिम और दोस्त एहबाब शामिल थे। 10 मोहर्रम को हुसैन का भरा घर लूट लिया गया। खयामे हुसैनी में आग लगा दी गई..!वाक्या सन 680 (61 हिजरी) का है.. ये वाक़िया इराक़ की सरज़मीं पर पेश आया, जहां यज़ीद ने अपनी बादशाहत की बुनियाद जुल्म और फसाद पर रखी थी। वो चाहता था कि इमाम हुसैन उसकी बैअत कर लें, लेकिन हुसैन ने साफ़ कह दिया, मेरे जैसा शख्स, यजीद जैसे कि बैअत नही कर सकता।
——————————————-इमाम हुसैन के काफ़िले में 72 अज़ीम रूहें थीं — जिनमें बच्चे, ख़वातीन, बुज़ुर्ग और जांबाज़ सिपाही शामिल थे। 7 मोहर्रम को यज़ीदी फौज ने पानी बंद कर दिया, और नहर-ए-फुरात तक पहुंचने पर पाबंदी लगा दी। 6 माह के मासूम अली असग़र से लेकर 18 साल के जवान अली अकबर तक सब प्यासे थे, मगर ज़ब्त और सब्र का वो मंज़र था कि किसी के लबों से शिकवा तक ना निकला।
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9 मोहर्रम की रात: वफ़ा का इम्तिहान…..रात के सन्नाटे में इमाम ने अपने रफ़ीक़ों को जाने की इजाज़त दी, शम्अ बुझा दी, ताकि जो जाना चाहे, चला जाए। लेकिन जब शम्अ रौशन की, तो देखा सब वहीं थे — सर झुकाए, हथियार थामे, इरादा पुख़्ता किए हुए। हर जुबान से सिर्फ़ एक ही आवाज़ थी “या हुसैन! हम जान दे देंगे, मगर तन्हा ना छोड़ेंगे।
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10 मोहर्रम: जंग का आग़ाज़ और शहादत का अंजाम…फज्र की नमाज़ अदा करने के बाद इमाम और उनके साथियों ने जंग के लिए तैयारी की। एक-एक कर के जांनिसार शहीद होते गए — औन, मुहम्मद, क़ासिम, अली अकबर, हज़रत अब्बास… और फिर… अली असग़र को जब तीर लगा तो ज़मीन भी काँप गई। आख़िर में, इमाम हुसैन ने भी सजदा करते हुए शहादत का जाम पिया। जंग का नतीजा जाहिरी तौर पर यज़ीद के हक़ में रहा, मगर तारीख़ ने गवाही दी कि फतह हुसैन की थी, और रहेगी।
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कर्बला का पैग़ाम….कर्बला हमें ये सिखाती है कि “हक़ की राह मुश्किल ज़रूर होती है, मगर कामयाब उसी को करती है जो सब्र, इस्तिक़ामत और ईमान से डटा रहे। “इमाम हुसैन ने न सिर्फ़ इस्लाम की हिफ़ाज़त की, बल्कि इंसानियत को एक अमर तालीम दी — कि.”ज़ुल्म के आगे झुकना, इस्लाम नहीं सिखाता।”
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आज भी ज़िंदा है कर्बला….हर मोहर्रम, हर दिल, हर मजलिस, हर मातमगाह में यही सदाएं गूंजती हैं “या हुसैन! “हमारे जिस्म मिट सकते हैं, लेकिन हक़ की सदा ना रुकेगी, ना झुकेगी। “कर्बला की ज़मीन खामोश है, मगर उसकी ख़ामोशी में सदियों की तालीम छुपी है। हुसैन आज भी मजलूमों की आवाज़ हैं, और यज़ीद हर दौर के ज़ालिम का चेहरा।

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